
साहित्य विमर्श प्रकाशन
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दानव | Danav इंसान के आस्तिक और नास्तिक होने की तहक़ीक़ात करती है। ये किताब इन सवालों के जवाब ढूँढती है कि वाक़ई क्या ईश्वर है? क्यूँकि किसी मानने वाले से पूछो तो आस्था को सीधी ठेस पहुँचती है, न मानने वाले से पूछो तो वो हँस पड़ता है। सवालों के जवाब दोनों में से कोई नहीं देता। पर तथ्य कुछ तो होगा। वैसे हमें पता होने न होने से उसके अस्तित्व को कोई फर्क नहीं पड़ता। तथ्य कई बार हवाओं की तरह होते हैं। वो हमारे सामने होते हैं, पर हम उन्हें देख नहीं पाते, महसूस ज़रूर कर लेते हैं।
आलोक को अनंत श्री के परिवार ने बचपन से पाला था। आख़िरकार वो अनाथ जो था। उस परिवार की परवरिश को लेकर आलोक कृतज्ञ भाव से इस क़दर लदा रहता कि उस परिवार की सेवा ही उसके लिए सब कुछ हो जाती। उस परवरिश ने उसे सब कुछ दिया भी था- नाम, इज़्ज़त, शोहरत और इन सबसे बढ़कर शिवानी। शिवानी, जो उसे ख़ुद के जान से भी ज़्यादा प्यारी थी।
परिस्थितियाँ तब विकट रूप लेती हैं, जब एक साज़िश होती है। चाहे अनचाहे आलोक और शिवानी उस साज़िश का हिस्सा हो जाते हैं। एक दूसरे पे मर मिटने की हद तक प्यार करने वाले आलोक और शिवानी इन बदली परिस्थितियों में एक दूसरे के आमने-सामने हो जाते हैं। आख़िर क्या है वो साज़िश? किसने की? क्या उस साज़िश से आलोक और शिवानी कभी उबर सकेंगे? पढ़िए दानव!
Weight | 300 g |
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Dimensions | 22 × 17 × 3 cm |
फॉर्मैट | पेपरबैक |
भाषा | हिंदी |
Number of Pages | 304 |
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