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यथार्थ यानी एक ऐसा सत्य जिसे झुठलाया नहीं जा सकता। एक ऐसा सत्य जिसे सामने देखकर भी अनदेखा कर दिया जाता है। यथार्थ एक प्रश्न है- “ऐसा कैसे हो सकता है?” कल्पनातीत किंतु सत्य। सामाजिक विसंगतियों में उलझे मानवीय जीवन के सत्य को उजागर करती हुई पुस्तक ‘यथार्थ’ आज आपके समक्ष हैं। जब मैंने इसे लिखना शुरू किया तो मेरा मन बहुत ही विचलित था क्योंकि मेरी दृष्टि में सभ्य समाज की परिभाषा बदल रही थी। अब इसे सामाजिक मूल्यों का पतन कहूँ या आधुनिक समाज का अवतरण, चारों ओर एक प्रश्न चिन्ह घूमता हुआ प्रतीत होने लगा और इसी से जन्म हुआ ‘यथार्थ’ का।
साहित्य विमर्श प्रकाशन
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