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यह उपन्यास क़िस्सा है निहायत आम लोगों के बेहद साधारण जीवन-यात्रा का। कैसे सामान्य ज़िंदगी जीने वाले किरदार असमान्य घटनाओं से गुज़रते हुए असाधारण हो जाते हैं! उपन्यास के मुख्यपात्र सुधा के लिए ‘द्विवेदी विला’ कैसे पंचवटी की उस कुटिया में तब्दील हो जाती है जिसके चारों तरफ़ एक अदृश्य लक्ष्मण रेखा खींच दी गई है! एक जोड़ी आँखें जो बाइस्कोप के भीतर से झाँकते चेहरों को देखती, सुनती और गुनती हैं। द्विवेदी विला के बाहर की दुनिया जैसे घाट की सीढ़ियों पर बैठे हुए तट के दूसरी तरफ़ दिखते अंजान गाँव को जानने और देखने की उत्कंठा है।
सबके सामने ख़ुशहाल और सफल दाम्पत्य जीवन जीती सुधा के भीतर छिपे अकेलेपन के धीमे-धीमे विराट हो जाने की गाथा है। एक स्त्री की पूरी मुट्ठी ख़ाली हो जाने के बाद हथेली में चिपके रेत कणों की गणना है।
‘द्विवेदी विला’ आवेग का रुदन नहीं आँसुओं को पोछ लेने के बाद का ठंडे दिमाग से लिया अंतिम फ़ैसला है। एक इमारत के चारों तरफ़ के संसार, लोग और वहाँ रहती कमज़ोर मन की सुधा के मज़बूत निर्णय की मार्मिक कहानी है द्विवेदी विला।
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