मानव मस्तिष्क की उधेड़बुन, सकारात्मक एवं नकारात्मक ऊर्जा को लेकर एक बढ़िया कहानी है ‘दानव’…. यूँ तो देवता, दानवों के बारे में हम बचपन से सुनते आये हैं परंतु इस किताब में लेखक ने आज के परिवेश के हिसाब से बड़े रोचक अंदाजा में प्रस्तुत किया है किरदारों को.
Rated 5 out of 5
Sandeep Naik –
दानव! मुझे साहित्य विमर्श की वेबसाइट से ₹१७९/- में पढ़ा, साथ में मैंने निम्फोमेनिआक भी लिया था ₹१४९/- में, जो अभी पढ़ना बाकी है। दोनों उपन्यासों पर डाकखर्च ₹५७/- लगा, जो कि मुझे अनुचित नहीं लगा।
एक तो उपन्यास का शीर्षक “दानव” और पहली ही पंक्ति में एक पात्र का प्रश्न, कि “देवताओं को मानते हो? धर्म, ईश्वर जैसी चीज़ों में आस्था है?” पढ़ने वाले को सीधा बैठ सचेत होकर पढ़ने को विवश कर देता है। वैसे तो पाठक को बांधने के लिए “दानव” की प्रस्तावना ही पर्याप्त है, प्रस्तावना ही पाठक के मन को झकझोर कर रख देती है। प्रस्तावना में यह पंक्ति कि “ये किताब इंसान के आस्तिक और नास्तिक होने की तहक़ीक़ात करती है”, आस्तिकों और नास्तिकों दोनों को बांधने के लिए काफ़ी है।
“कहीं देवताओं के नाम पर नैतिकता का पाठ पढ़ा हमें बेवक़ूफ़ तो नहीं बनाया जा रहा? नैतिक मापदंडों का क्या हो अगर इस दुनिया से देवताओं को निकाल दिया जाए?” ऐसी पंक्ति के साथ “दानव” की भूमिका भी पाठक के मन को उद्वेलित कर देती है। फिर यहीं से पाठक बंध जाता है कि अब पूरा पढ़ कर ही मन को शांति मिलेगी।
भूमिका में लिखे शब्दों में, “किताब एक ऐसे अनाथ इंसान की कहानी है जो इस दुनिया में घट रहे एक बड़े ही ख़तरनाक साज़िश के बीच ख़ुद को उलझा हुआ पाता है।” क्या है वह साज़िश, किसने की है, क्या किसी दानव ने? क्या सच में दानवी और ईश्वरीय शक्तियों का अस्तित्व होता है, और क्या उनकी लड़ाई चलती रही है अनादिकाल से? अधिकतर लोगों के मन में उठने वाले इन प्रश्नों के उत्तर की ओर कहानी बढ़ती है। बाकी, कहानी के बारे में इससे अधिक यहाँ न बताना ही न्यायोचित है।
कहानी एक रहस्यमयी अपराध कथा तो है ही, कईं जगहों पर पाठकों को अचंभित या स्तब्ध कर देने वाले अप्रत्याशित मोड़ लिये हुए है। उपन्यास निस्संदेह “पैसा वसूल” हो जाता है।
जैसा लेखक ने विषय लिया है लिखने का, कहानी की गति और संवाद भी उसीके अनुरूप हैं। लेखक ने कईं जगहों पर तो अत्यंत दार्शनिक, कलात्मक और खूबसूरत बातें कही हैं। जैसे पेज नंबर १५८ पर, “इंसान बड़ा अकेला जीव है। उसकी ज़िंदगी बड़ी सुनसान होती है।… आत्मा ये दिलासा दे दे कि ईश्वर को कह दिया है वो देख लेगा, बस इतना दिलासा काफ़ी है। मन शांत हो जाता है।” ये बेहतरीन लगा।
“दानव” कुल २२१ पृष्ठों का है, पर कहानी “दानव” में ही खत्म नहीं होती, आगे कितने भाग आएंगे ये तो लेखक महोदय जानें। कहानी की भव्यता को देखते हुए यह ठीक ही है, पाठक को भी कहानी से इतनी जल्दी अलग होने की इच्छा नहीं होती।
मेरे विचार में “दानव” पैसा-वसूल है, पर किसी को भी नापसंद आने जैसा तो बिल्कुल भी नहीं है। अवश्य पढ़ें!!
Ruk Jana Nahin | रुक जाना नहीं – यह किताब प्रतियोगी परीक्षाओं की तैयारी करने वाले हिंदी मीडियम के युवाओं को केंद्र में रखकर लिखी गई है।इस किताब में कोशिश की गई है कि हिंदी पट्टी के युवाओं की ज़रूरतों के मुताबिक़ कैरियर और ज़िंदगी दोनों की राह में उनकी सकारात्मक रूप से मदद की जाए।
इस किताब के छोटे-छोटे लाइफ़ मंत्र इस किताब को खास बनाते हैं। ये छोटे-छोटे मंत्र जीवन में बड़ा बदलाव लाने की क्षमता रखते हैं।इस किताब की कुछ और ख़ासियतें भी हैं। इसमें पर्सनैलिटी डेवलपमेंट के प्रैक्टिकल नुस्ख़ों के साथ स्ट्रेस मैनेजमेंट, टाइम मैनेजमेंट पर भी विस्तार से बात की गई है। चिंतन प्रक्रिया में छोटे-छोटे बदलाव लाकर अपने कैरियर और ज़िंदगी को काफ़ी बेहतर बनाया जा सकता है।
विद्यार्थियों के लिए रीडिंग और राइटिंग स्किल को सुधारने पर भी इस किताब में बात की गई है। कुल मिलाकर किताब में कोशिश की गई है कि सरल और अपनी-सी लगने वाली भाषा में युवाओं के मन को टटोलकर उनके मन के ऊहापोह और उलझनों को सुलझाया जा सके।इस मोटिवेशनल किताब में असफलता को हैंडल करने और सफलता की राह पर बढ़ते जाने कुछ नुस्ख़े भी सुझाए हैं। ऐसे 26 युवाओं की सफलता की शानदार कहानियाँ भी उन्हीं की ज़ुबानी इस किताब के अंत में शामिल हैं, जिन्होंने तमाम प्रतिकूलताओं के बावजूद ‘रुक जाना नहीं’ का मंत्र अपनाकर सफलता की राह बनाई और युवाओं के प्रेरणास्त्रोत बने
Abhishek Singh Rajawat –
मानव मस्तिष्क की उधेड़बुन, सकारात्मक एवं नकारात्मक ऊर्जा को लेकर एक बढ़िया कहानी है ‘दानव’…. यूँ तो देवता, दानवों के बारे में हम बचपन से सुनते आये हैं परंतु इस किताब में लेखक ने आज के परिवेश के हिसाब से बड़े रोचक अंदाजा में प्रस्तुत किया है किरदारों को.
Sandeep Naik –
दानव! मुझे साहित्य विमर्श की वेबसाइट से ₹१७९/- में पढ़ा, साथ में मैंने निम्फोमेनिआक भी लिया था ₹१४९/- में, जो अभी पढ़ना बाकी है। दोनों उपन्यासों पर डाकखर्च ₹५७/- लगा, जो कि मुझे अनुचित नहीं लगा।
एक तो उपन्यास का शीर्षक “दानव” और पहली ही पंक्ति में एक पात्र का प्रश्न, कि “देवताओं को मानते हो? धर्म, ईश्वर जैसी चीज़ों में आस्था है?” पढ़ने वाले को सीधा बैठ सचेत होकर पढ़ने को विवश कर देता है। वैसे तो पाठक को बांधने के लिए “दानव” की प्रस्तावना ही पर्याप्त है, प्रस्तावना ही पाठक के मन को झकझोर कर रख देती है। प्रस्तावना में यह पंक्ति कि “ये किताब इंसान के आस्तिक और नास्तिक होने की तहक़ीक़ात करती है”, आस्तिकों और नास्तिकों दोनों को बांधने के लिए काफ़ी है।
“कहीं देवताओं के नाम पर नैतिकता का पाठ पढ़ा हमें बेवक़ूफ़ तो नहीं बनाया जा रहा? नैतिक मापदंडों का क्या हो अगर इस दुनिया से देवताओं को निकाल दिया जाए?” ऐसी पंक्ति के साथ “दानव” की भूमिका भी पाठक के मन को उद्वेलित कर देती है। फिर यहीं से पाठक बंध जाता है कि अब पूरा पढ़ कर ही मन को शांति मिलेगी।
भूमिका में लिखे शब्दों में, “किताब एक ऐसे अनाथ इंसान की कहानी है जो इस दुनिया में घट रहे एक बड़े ही ख़तरनाक साज़िश के बीच ख़ुद को उलझा हुआ पाता है।” क्या है वह साज़िश, किसने की है, क्या किसी दानव ने? क्या सच में दानवी और ईश्वरीय शक्तियों का अस्तित्व होता है, और क्या उनकी लड़ाई चलती रही है अनादिकाल से? अधिकतर लोगों के मन में उठने वाले इन प्रश्नों के उत्तर की ओर कहानी बढ़ती है। बाकी, कहानी के बारे में इससे अधिक यहाँ न बताना ही न्यायोचित है।
कहानी एक रहस्यमयी अपराध कथा तो है ही, कईं जगहों पर पाठकों को अचंभित या स्तब्ध कर देने वाले अप्रत्याशित मोड़ लिये हुए है। उपन्यास निस्संदेह “पैसा वसूल” हो जाता है।
जैसा लेखक ने विषय लिया है लिखने का, कहानी की गति और संवाद भी उसीके अनुरूप हैं। लेखक ने कईं जगहों पर तो अत्यंत दार्शनिक, कलात्मक और खूबसूरत बातें कही हैं। जैसे पेज नंबर १५८ पर, “इंसान बड़ा अकेला जीव है। उसकी ज़िंदगी बड़ी सुनसान होती है।… आत्मा ये दिलासा दे दे कि ईश्वर को कह दिया है वो देख लेगा, बस इतना दिलासा काफ़ी है। मन शांत हो जाता है।” ये बेहतरीन लगा।
“दानव” कुल २२१ पृष्ठों का है, पर कहानी “दानव” में ही खत्म नहीं होती, आगे कितने भाग आएंगे ये तो लेखक महोदय जानें। कहानी की भव्यता को देखते हुए यह ठीक ही है, पाठक को भी कहानी से इतनी जल्दी अलग होने की इच्छा नहीं होती।
मेरे विचार में “दानव” पैसा-वसूल है, पर किसी को भी नापसंद आने जैसा तो बिल्कुल भी नहीं है। अवश्य पढ़ें!!
संदीप नाईक
इंदौर (मध्य प्रदेश)